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आयुर्वेद कितने प्रकार के होते है - Key-to-healthy-life

आयुर्वेद कितने प्रकार के होते है - Key-to-healthy-life

आयुर्वेद के प्रकार  ( Ayurved ke char prakar)

  1. सुखायु - जो व्यक्ति शारीरिक या मानसिक रोगों से घिरा हुआ नहीं हैं, जिसकी इन्द्रियाँ अच्छे से काम करती हैं जिसको हर कार्य में सफलता प्राप्त है  उसकी आयु सुखायु कही जाती है।
  2. दु:खायु - सुखाय के विपरीत स्थिति दु:खायु कही जाती है।
  3. हितायु - जो व्यक्ति सबका हितैषी है, दूसरे के धन का लोभ नहीं करता एवं सत्य बोलता है, शान्त प्रकृति का है, सोच-समझकर कदम उठाने वाला है,  पूज्यजनों की पूजा करता है ज्ञान-विज्ञान सम्पन्न है,  लोक और परलोक का विचार कर कार्य करने वाला है  उसकी आयु ‘हितायु’ कहलाती है।   
  4. अहितायु - हिताय के विपरीत स्थिति को ‘अहितायु’ कहते हैं।  हर तरीके से आयु के हित और अहित का विचार ही आयुर्वेद में किया गया है।

आयुर्वेद शास्त्र की तीन प्रमुख शाखाएं हैं- आयुर्वेद के तीन प्रकार (Ayurved mein teen prakar  hai )

  1. हेतु ज्ञान
  2. लिंग ज्ञान
  3. औषधि ज्ञान।

 हेतु ज्ञान का अर्थ- रोग किस कारण से उत्पन्न हुआ, यह जानकारी रखना। रोग के बारे में पूरी तरीके से जानकर उसका इलाज करना  है। ताकि रोग को जड़ से खत्म किया जा सके 

लिंग ज्ञान का अर्थ - रोग का विशेष लक्षण का ज्ञान प्राप्त करना। और जड़ से बीमारी को पहचानकर उसका इलाज करना 

औषधि ज्ञान का अर्थ - गंभीर रोग में विशेष औषधि का प्रयोग करना। बीमारी को ठीक करने के लिए प्राकृतिक जड़ी बूटियों का इस्तेमाल करके रोग का जड़ से इलाज करना 

आयुर्वेद में शरीर के भी तीन प्रकार होते है।

वात, कफ और पित्त  जिन्हें balance करना सबसे ज्यादा जरूरी है और आयुर्वेद की मदद से आप अपने वात, कफ, पित्त को balance रखकर खुद को स्वस्थ रख सकते है।

आयुर्वेद एक प्राचीन भारतीय चिकित्सा विद्या है जिसमें शारीरिक, मानसिक, और आत्मिक स्वास्थ्य को संतुलित रखने के उपायों का वर्णन है। आयुर्वेद के अनुसार, मनुष्य के शरीर में तीन प्रमुख तत्व होते हैं:

1. **वात (Vata)**: वायु और आकाश तत्व का संयोजन वात कहलाता है। वात दोष के व्यक्ति में शरीर का तापमान कम रहता है, वे अधिक चलनशील और विचलित होते हैं।

2. **पित्त (Pitta)**: अग्नि तत्व का संयोजन पित्त कहलाता है। पित्त दोष के व्यक्ति में तेज गर्मी होती है और वे उत्तेजनापन और आक्रोशपूरित हो सकते हैं।

3. **कफ (Kapha)**: पृथ्वी और जल तत्व का संयोजन कफ कहलाता है। कफ दोष के व्यक्ति में शरीर में ठंडक होती है और वे स्थिरता और स्थितिलता का अनुभव कर सकते हैं।

आयुर्वेद में शरीर को संरचित करने वाले तत्वों को 'दोष' कहा जाता है। इन त्रिदोषों के संतुलन के बारे में ध्यान रखने के लिए विभिन्न उपायों का उपयोग किया जाता है ताकि स्वास्थ्य और समता को बनाए रखा जा सके।

इसे भी पढ़े -  आयुर्वेद क्या है ? आयुर्वेद का मुख्य उद्देश्य क्या है?

अलंकरण रूप से, आयुर्वेद में व्यक्ति की प्रकृति को तीन प्रकार से वर्गीकृत किया जा सकता है:

1. **वात प्रकृति**: वात दोष का अधिक आदान-प्रदान होता है। इस प्रकृति के व्यक्ति स्थिर नहीं रहते, जल्दी थक जाते हैं और उन्हें ठंडी अधिक पसंद होती है।

2. **पित्त प्रकृति**: पित्त दोष का अधिक आदान-प्रदान होता है। इस प्रकृति के व्यक्ति उत्तेजित हो सकते हैं, उनका शरीर गरम होता है और वे चिंताओं को जल्दी लेते हैं।

3. **कफ प्रकृति**: कफ दोष का अधिक आदान-प्रदान होता है। इस प्रकृति के व्यक्ति ठंडे शरीर वाले होते हैं, वे स्थिर रहते हैं और उन्हें अधिक गरम खाद्य पसंद नहीं हैं।

इन तीन प्रकार के दोषों का संतुलन रखने के लिए व्यक्ति को उपयुक्त आहार, व्यायाम और जीवनशैली अपनाने की सलाह दी जाती है।

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